मंटो कौन थे ? चतरा के दिग्गज पत्रकार नौशाद आलम की कलम से

लेखक और प्रस्तोता झारखण्ड के चतरा जिला के ख्यातिप्राप्त प्राप्त है उनकी ही मंटो पर लेखनी और वीडियो आपके लिए प्रस्तुत है। ——//// सआदत हसन मंटो, उर्दू अदब के, एक ऐसे कहानीकार हुए, जिन्होंने शोहरत की तरह, बदनामी कमाई। यही उनकी, तखलिकि… खुसूसियत है। सच तो यह है, कि उन्होंने अपने… अफसानों में… इंसानी मनोविज्ञान का… जैसा नंगा चित्रण पेश किया, इसके लिए… वे बदनाम न होते… तो यह… उनकी नाकामयाबी मानी जाती। सआदत हसन मंटो का जन्म 11 मई 1912 में लुधियाना के गाँव पपड़ौदी में हुआ। उनके पिता गुलाम हसन मंटो कश्मीरी थे। मंटो के जन्म के जल्द बाद वह अमृतसर चले गए।मंटो की प्राथमिक पढ़ाई घर में ही हुई। 1931 में उन्होंने मैट्रिक पास की और उसके बाद कालेज में दाख़िला लिया। मंटो कहानीकार होने के साथ-साथ फिल्म लेखक और पत्रकार भी थे। उनके छोटे से जीवनकाल में बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित हुए। लेकिन उन्हें जिन कहानियों के लिए सबसे ज्यादा जिल्लत उठानी पड़ी, उनमें टोबा टेक सिंह, बू, ठंडा गोश्त और खोल दो जैसे अफसाने शामिल हैं। मंटो की कहानियों में मानो लगता है कि सभ्यता और इंसान की पाश्विक प्रवृत्तियों के बीच जो द्वंद है, उसे उधेड़कर रख दिया गया है. सभ्यता का नकाब ओढ़े समाज को चुनौती देती उनकी कहानियां बहुत वाजिब थी। फिर भी उन्हें कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाना पड़ा।कहानियों में अश्लीलता के आरोप में मंटो पर कई मुकदमे चले। इसकी वजह से उन्हें छह बार अदालत में हाजिर होना पड़ा। तीन बार पाकिस्तान बनने से पहले और तीन बार पाकिस्तान बनने के बाद। लेकिन एक बार भी उनके खिलाफ अश्लीलता का आरोप साबित नहीं हो पाया। सभ्यता और संस्कृति के ठेकेदारों की नज़र में, मंटो जहां एक तरफ समाज के मुजरिम थे तो वहीं इसी सभ्य समाज की बनाई गई अदालतों में वो सिर्फ समाज की नंगी सच्चाइयों पर लिखने वाले एक कहानीकार थे। मंटो ने खुद कहा था- मुझमें जो बुराइयां हैं दरअसल वो इस युग की बुराइयां हैं. मेरे लिखने में कोई कमी नहीं. जिस कमी को मेरी कमी बताया जाता है वह मौजूदा व्यवस्था की कमी है।मंटो ने ताउम्र मजहबी कट्टरता के खिलाफ लिखा। बेबाकी उनके खून में थी। उन्हीने मजहबी दंगे की विद्रूपता को अपनी कहानियों में कुछ इस तरह पेश किया कि लोग सन्न रह गए. उनके लिए मजहब से ज्यादा कीमती इंसानियत थी.मंटो ने लिखा, ‘मत कहिए कि हज़ारों हिंदू मारे गए या फिर हज़ारों मुसलमान मारे गए।सिर्फ ये कहिए कि हज़ारों इंसान मारे गए और ये भी इतनी बड़ी त्रासदी नहीं है कि हज़ारों लोग मारे गए।सबसे बड़ी त्रासदी तो ये है कि हज़ारों लोग बेवजह मारे गए।हज़ार हिंदुओं को मारकर मुसलमान समझते हैं कि हिंदू धर्म ख़त्म हो गया लेकिन ये अभी भी ज़िंदा है और आगे भी रहेगा।उसी तरह हज़ार मुसलमानों को मारकर हिंदू इस बात का जश्न मनाते हैं कि इस्लाम ख़त्म हो चुका. लेकिन सच्चाई आपके सामने है. सिर्फ मूर्ख ही ये सोच सकते हैं कि मजहब को बंदूक से मार गिराया जा सकता है। मंटो को बंटवारे का दर्द हमेशा सालता रहा. 1948 में पाकिस्तान जाने के बाद वो वहां सिर्फ सात साल ही जी सके. वे 18 जनवरी 1955 को पाकिस्तान के लाहौर में इस दुनिया को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह गए। मंटो के जन्म दिन पर इस खास प्रस्तुति में बस इतना ही। खुदा हाफिज… नौशाद आलम,चतरा

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