20 फरवरी, प्रख्यात साहित्यकार नामवर सिंह की पुण्यतिथि पर विशेष
विजय केसरी
नामवर सिंह हिंदी परिदृश्य के एक महत्वपूर्ण शख्सियत थे। उनकी आलोचना की पुस्तकें आज भी उसी गंभीरता के साथ पढ़ी जा रही है। उनकी रचनाशीलता उनके जाने के साथ ही समाप्त हो गई थी। इसके बावजूद उनका रचना संसार इतना विशाल है कि विश्व के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में उनके लेखन कर्म पर शोध कार्य हो रहे हैं। उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में जो कार्य किया, प्रसिद्धि पाई, किसी अन्य आलोचक के लिए वह मुकाम हासिल करना,बड़ी बात प्रतीत होती है। उन्होंने अपने आलोचना कर्म के माध्यम से देश के विभिन्न क्षेत्रों में छुपे हिंदी के रचनाकारों को राष्ट्रीय फलक पर सामने लाया था। उनकी कलम जिस भी साहित्यकार को स्पर्श कर लेती थी, वह साहित्यकार रातों – रात स्टार लेखक बन जाता था। उनकी कलम की तरह उनकी वाणी में भी सरस्वती विराजमान थी। वे हिंदी साहित्य के एक इनसाइक्लोपीडिया बन गए थे। उनके कार्यक्रमों में हजारों हजार की संख्या में लोग सुनने के लिए जुटा करते थे। वे जहां भी जाते, प्रेस और मीडिया वाले उनके पीछे लग जाते थे। उनके मुख से निकले हर वाक्य राष्ट्रीय समाचार में परिवर्तित हो जाया करता था। ऐसी विलक्षण प्रतिभा सदियों बाद पैदा लेती है। वे ना होकर भी उनकी किताबें हम सबों से बातें करती ही रहती हैं। यह उनके जीवन की विशेषता रही।
उनका संपूर्ण जीवन साहित्य को समर्पित रहा । नामवर जी का साहित्य कर्म सदैव हिंदी साहित्यानुरागियों का मार्ग प्रशस्त करता रहेगा । आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने जो सृजन किया ,सदा अमिट रहेगा । उनका जन्म हिंदी साहित्य की सेवा करने के लिए ही हुआ था ।समस्त हिंदी अनुरागियों को उन पर नाज रहेगा। उन्होंने हिंदी साहित्य की हर विधा पर काम किया । वे एक अच्छे साहित्यकार के साथ प्रखर वक्ता तथा उच्च कोटि के विद्वान थे ।उनकी विद्वता सदा लोगों को आकर्षित करती रहेंगी । हिंदी साहित्य के अन्वेषक के रूप में भी उन्हें याद किया जाता रहेगा । वे हिंदी के महासागर के समान थे । हिंदी के शीर्ष पद पर आसीन रहते हुए भी उन्होंने सदा साधारण से साधारण लेखकों, कवियों को आजीवन ऊपर उठाते रहे।
2005 में विनोबा भावे विश्वविद्यालय के आमंत्रण पर हिंदी साहित्य के सतत गतिशील और जीवंत आलोचक डॉ नामवर सिंह हजारीबाग आए थे। 3 दिनों तक हजारीबाग में रुके थे ।यहां कथा सम्राट “प्रेमचंद की विरासत “पर उनका यादगार व्याख्यान हुआ था । जिसे आज तक लोग भूल नहीं पाए है। लोगों ने प्रेमचंद की रचनाओं पर इतना बेहतरीन और सूक्ष्म अन्वेषित भाषण नहीं सुना था ।यह मेरा सौभाग्य है कि उक्त कार्यक्रम में मैं भी एक भाग्यशाली श्रोता के रूप में उपस्थित था। पूरा सभाकक्ष भरा था।
पूर्ण रूपेण शांत चित् होकर लोग डॉक्टर नामवर सिंह को सुन रहे थे। उन्होंने कहा था कि “प्रेमचंद जैसे कथाकार सदियों बाद आते हैं ।और सदियों तक रहते हैं ।उन्होंने अपने कथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त असमानता ,गरीबी ,रुदन ,टूटन और शोषण के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाई थी ,बल्कि उन पर जमकर प्रहार भी किया ।”
विश्वविद्यालय के कार्यक्रम के अलावा हजारीबाग के साहित्यकारों ने आयकर प्रशिक्षण केंद्र के सभागार में भी साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया था। बतौर मुख्य अतिथि वक्ता के रूप में डॉक्टर नामवर सिंह सम्मिलित हुए थे। अध्यक्षता स्वर्गीय प्रोफेसर नागेश्वर लाल ने की थी । आयोजित उक्त साहित्य सभा में इससे पूर्व वहां होने वाली सभाओं की तुलना में कभी भी इतनी बड़ी भीड़ नहीं हुई थी । सभाकक्ष पूरी तरह भरा था । लोगों ने नामवर सिंह के आने के एक घंटा पूर्व ही यहां आना शुरू कर दिया था । हिंदी साहित्यानुरागियों के लिए नामवर सिंह का सीधा संबोधन सुनना सपने को सच होने जैसा प्रतीत हो रहा था । इस सभा में डॉक्टर नामवर सिंह ने स्थापित कथाकारों से सीखने की सीख दी और आलोचना क्या होती है ? उससे परिचित भी करवाया । उन्होंने कहा कि “मैंने बने बनाए सत्य की पुड़िया बांटने नहीं आया हूं । मैं आपको झकझोरने आया हूं कि नये लोग सामने आए और हमारी अधूरी अपूर्ण बातों को पूरा करें।” उनकी टिप्पणी से प्रतीत होता है कि उन्हें एहसास होना शुरू हो गया था कि अब उनकी उम्र चुक रही है । इसीलिए नए लोगों को सामने आना चाहिए । आलोचना का जो नया मार्ग उन्होंने दिखाया उस पर बहुत काम करने की जरूरत है।
चार दिनों तक मैं नामवर सिंह को सुनता रहा था ।इसके बाद भी सुनने की ललक बरकरार रहती थी ।वह हर रचनाकार और साहित्यानुरागियोंसे बड़े ही सहज ढंग से मिलते । मिलने वालों के प्रश्नों का उत्तर पूरी विनम्रता का साथ दिया करते थे । उनके साथ बिताए 4 दिन मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । ऐसा मैं मानता हूं । नामवर सिंह की विशेष जानकारी हिंदी तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इस दुनिया में क्या घटनाएं घट रही है ?क्यों घट रही है? इसके क्या-क्या राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कारण है ? इन तमाम बिंदुओं पर बेबाक और स्पष्ट राय रखते थे । इन चार दिनों में मैंने देखा कि वे सदैव गतिशील बने रहते हैं । ताजी और स्फूर्ति उनकी देखते बनती थी । जब मैंने इसका राज पूछा तो उन्होंने कहा कि “सच के साथ रहो और सच के लिए मिटना पड़े तो मिट जाओ। मिट कर भी तुम सदियों तक जीवित रहोगे ।यह शरीर को तो एक न एक दिन नाश होना ही है और हर पल नाश हो रहा है ।तुम्हारा सच हर पल जवान हो रहा है और तुम्हें ऊर्जा प्रदान कर रहा है ।
नामवर सिंह को इस बात को लेकर कष्ट होता रहा है कि अधिकांश रचनाकार दूसरे लेखकों की कृतियों को नहीं पढ़ते । रचनाकारों को अन्य रचनाकारों को भी पढ़ना चाहिए और उसमें डूबना चाहिए तथा विचार कर सृजन करें तब उनके लेखन में एक नया आएगा ।मेरी समझ में उनका आशय था कि जब तक रचनाकार दूसरे रचनाकारों को नहीं पढ़ेंगे उनकी रचनाओं में दोहराव आने का खतरा बना रहेगा।
नामवर सिंह का मानना है कि “सिर्फ लिखने से काम नहीं चलेगा बल्कि गंभीरता से पढ़ने की जरूरत है” । उन्होंने यहां तक कहा कि आलोचना कर्म पढ़ने की उपज है ।आज मैं जो कुछ भी हूं ,इसी पढ़ने के कारण हूं। हिंदी साहित्य के अलावा देश में ही अन्य भाषाओं का महत्वपूर्ण रचना संसार है । लेखकों को अपनी अन्य भारतीय भाषाओं की रचनाओं को पढ़ना चाहिए । यही कारण है कि नामवर सिंह के प्रशंसक और आलोचक भी यह मानते हैं कि हिंदी साहित्य में उनके जैसी प्रभावशाली उपस्थिति शायद ही किसी की हो। उनका हिंदी पर ही नहीं बल्कि तमाम भारतीय भाषाओं के बौद्धिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अंग्रेजी की तानाशाही को समाप्त कर हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं की प्रतिष्ठा स्थापित करने में काफी योगदान दिया।
उन्होंने 1945 से लिखना प्रारंभ किया था । 74 साल से वे नियमित लिख रहे थे । पढ़ते रहे थे। यात्राएं करते रहे थे। विभिन्न मंचों से बोलते रहे थे। उनके हर संबोधन में नयापन होता था।। उन्हें साहित्य की सूक्ष्म समझ थी । बड़ी से बड़ी बात को बिल्कुल साधारण और बोलचाल की भाषा में कह गुजरते थे। विद्वता की बुलंदियों को सिद्ध करते हुए भी नामवर सिंह जी सदा अपने को धरातल में बनाए रखते थे। यह सिर्फ और सिर्फ नामवर सिंह से ही संभव था। जो एक बार भी उनसे मिल लेता , उन्हीं का हो जाता था । उनकी ख्याति की गूंज सिर्फ देश भर तक सीमित नहीं है बल्कि विश्व भर में उनके चाहने वाले लोग हैं । सभी नामवर जी की आलोचनाओं को सिद्दत पढ़ते हैं । आलोचनाओं से सीखते हैं और अपनी रचनाओं को की कमियों को दुरुस्त करते हैं, संवारते हैं।
प्रख्यात साहित्यकार स्वर्गीय डॉ भारत यायावर ने नामवर के संदर्भ में लिखा है कि “हिंदी आलोचना की एक गौरवशाली परंपरा है जिसके आधार स्तंभ है- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ,आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,नंददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी ,रामविलास शर्मा और नामवर सिंह । नामवर सिंह हिंदी आलोचना की शायद वह अंतिम कड़ी है ,जिसे इतिहास पुरुष का जा सकता है । भारतीय परंपरा और आधुनिकता के द्वंद से उनकी आलोचना निर्मित हुई है ।”
यह लिखने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनका कृतित्व ऐतिहासिक महत्व प्राप्त कर चुका है तथा उनका मूल्यांकन प्रस्तुत करना उनके साहित्यिक अवदान की मीमांसा प्रस्तुत करने का यह सही समय है। नामवर सिंह का होना पूरे हिंदी परिदृश्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण एवं जरूरी है।
विजय केसरी
(कथाकार / स्तंभकार)
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